शरीर में ओ३म् – शब्द की सामर्थ्य द्वारा दिखाया गया है

ध्वनि एक पूरी तरह से अलग माध्यम है जिसके द्वारा पवित्र चित्रों या स्थानों की अपेक्षा परम वास्तविकता (ब्रह्म) को समझ जाता है। ध्वनि अनिवार्य रूप से तरंगों द्वारा प्रेषित जानकारी है। ध्वनि द्वारा ले जाई जाने वाली जानकारी सुंदर संगीत, निर्देशों का एक सूची, या कोई सन्देश होता है जिसे एक व्यक्ति भेजना चाहता है।

ओ३म् का प्रतीक। प्रणव में तीन भागों और संख्या 3 पर ध्यान दें।

जब कोई ध्वनि के साथ सन्देश देता है, तो इसमें कुछ दिव्य होता है, या यह दिव्यता के कुछ हिस्सा को दर्शाता है। यह पवित्र ध्वनि और प्रतीक ओ३म्  (ॐ) में पाए जाते हैं, जिसे प्रणव कहा जाता है। ओ३म् (या ॐ) दोनों ही अर्थात् एक पवित्र मंत्र और त्रि-भागी प्रतीक है। ओ३म्  के अर्थ और संकेत विभिन्न परंपराओं की विभिन्न तरह की शिक्षाओं में भिन्न मिलते हैं। त्रि-भागी प्रणव का प्रतीक पूरे भारत में प्राचीन पांडुलिपियों, मन्दिरों, मठों और आध्यात्मिक जागृति केन्द्रों में प्रचलित है। प्रणव मंत्र को परम वास्तविकता (ब्रह्म) के सर्वोत्तम रूप में समझ गया है। ओ३म् अक्षरा या एकाक्षरा के बराबर है – एक अविनाशी वास्तविकता।

इस संबंध में यह महत्वपूर्ण है कि वेद पुस्तक (बाइबल) एक त्रि-भागी मध्यस्थक के शब्द के माध्यम से होने वाली सृष्टि की रचना को लिपिबद्ध करती है। परमेश्वर ने ‘कहा’ [संस्कृत में व्याहृति (vyahriti)] और सभी लोकों के माध्यम से तरंगों के रूप में प्रचार करने वाली सूचनाओं का प्रसारण हुआ, जो आज व्याहृति  के जटिल ब्रह्मांड में पिंड और ऊर्जा को व्यवस्थित करती हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ‘परमेश्वर का आत्मा’ उसके ऊपर मण्डराता था या पदार्थ के ऊपर कम्पन पैदा करता था। कम्पन दोनों अर्थात् ऊर्जा का एक रूप है और यह ध्वनि का सार भी बनता है। इब्रानी वेदों में बताया गया है कि कैसे 3भागी: परमेश्वर, परमेश्वर के वचन, और परमेश्वर के आत्मा, ने अपने शब्द अर्थात् वाणी (व्याहृति) को बोला, जिसके परिणामस्वरूप ब्रह्मांड की रचना हुई जिसे अब हम देखते हैं। इसे यहां पर लिपिबद्ध किया गया है।

इब्रानी वेद: त्रि-भागी सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करता है

दि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की।
2 और पृथ्वी बेडौल और सुनसान पड़ी थी; और गहरे जल के ऊपर अन्धियारा था: तथा परमेश्वर का आत्मा जल के ऊपर मण्डलाता था।
3 तब परमेश्वर ने कहा, उजियाला हो: तो उजियाला हो गया।
4 और परमेश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है; और परमेश्वर ने उजियाले को अन्धियारे से अलग किया।
5 और परमेश्वर ने उजियाले को दिन और अन्धियारे को रात कहा। तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पहिला दिन हो गया॥
6 फिर परमेश्वर ने कहा, जल के बीच एक ऐसा अन्तर हो कि जल दो भाग हो जाए।
7 तब परमेश्वर ने एक अन्तर करके उसके नीचे के जल और उसके ऊपर के जल को अलग अलग किया; और वैसा ही हो गया।
8 और परमेश्वर ने उस अन्तर को आकाश कहा। तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार दूसरा दिन हो गया॥
9 फिर परमेश्वर ने कहा, आकाश के नीचे का जल एक स्थान में इकट्ठा हो जाए और सूखी भूमि दिखाई दे; और वैसा ही हो गया।
10 और परमेश्वर ने सूखी भूमि को पृथ्वी कहा; तथा जो जल इकट्ठा हुआ उसको उसने समुद्र कहा: और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
11 फिर परमेश्वर ने कहा, पृथ्वी से हरी घास, तथा बीज वाले छोटे छोटे पेड़, और फलदाई वृक्ष भी जिनके बीज उन्ही में एक एक की जाति के अनुसार होते हैं पृथ्वी पर उगें; और वैसा ही हो गया।
12 तो पृथ्वी से हरी घास, और छोटे छोटे पेड़ जिन में अपनी अपनी जाति के अनुसार बीज होता है, और फलदाई वृक्ष जिनके बीज एक एक की जाति के अनुसार उन्ही में होते हैं उगे; और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
13 तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार तीसरा दिन हो गया॥
14 फिर परमेश्वर ने कहा, दिन को रात से अलग करने के लिये आकाश के अन्तर में ज्योतियां हों; और वे चिन्हों, और नियत समयों, और दिनों, और वर्षों के कारण हों।
15 और वे ज्योतियां आकाश के अन्तर में पृथ्वी पर प्रकाश देने वाली भी ठहरें; और वैसा ही हो गया।
16 तब परमेश्वर ने दो बड़ी ज्योतियां बनाईं; उन में से बड़ी ज्योति को दिन पर प्रभुता करने के लिये, और छोटी ज्योति को रात पर प्रभुता करने के लिये बनाया: और तारागण को भी बनाया।
17 परमेश्वर ने उन को आकाश के अन्तर में इसलिये रखा कि वे पृथ्वी पर प्रकाश दें,
18 तथा दिन और रात पर प्रभुता करें और उजियाले को अन्धियारे से अलग करें: और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
19 तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार चौथा दिन हो गया॥
20 फिर परमेश्वर ने कहा, जल जीवित प्राणियों से बहुत ही भर जाए, और पक्षी पृथ्वी के ऊपर आकाश के अन्तर में उड़ें।
21 इसलिये परमेश्वर ने जाति जाति के बड़े बड़े जल-जन्तुओं की, और उन सब जीवित प्राणियों की भी सृष्टि की जो चलते फिरते हैं जिन से जल बहुत ही भर गया और एक एक जाति के उड़ने वाले पक्षियों की भी सृष्टि की: और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है।
22 और परमेश्वर ने यह कहके उनको आशीष दी, कि फूलो-फलो, और समुद्र के जल में भर जाओ, और पक्षी पृथ्वी पर बढ़ें।
23 तथा सांझ हुई फिर भोर हुआ। इस प्रकार पांचवां दिन हो गया।
24 फिर परमेश्वर ने कहा, पृथ्वी से एक एक जाति के जीवित प्राणी, अर्थात घरेलू पशु, और रेंगने वाले जन्तु, और पृथ्वी के वनपशु, जाति जाति के अनुसार उत्पन्न हों; और वैसा ही हो गया।
25 सो परमेश्वर ने पृथ्वी के जाति जाति के वन पशुओं को, और जाति जाति के घरेलू पशुओं को, और जाति जाति के भूमि पर सब रेंगने वाले जन्तुओं को बनाया: और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा

है।उत्पत्ति 1:1-25

इसके बाद इब्रानी वेदों पुन∶ वर्णन करते ​​हैं कि परमेश्वर ने मानव जाति को ‘अपने स्वरूप’ में रचा ताकि हम सृष्टिकर्ता को प्रतिबिंबित कर सकें। परन्तु हमारा प्रतिबिंब इस बात में सीमित है कि हम प्रकृति को केवल अपने बोलने मात्र से आदेश नहीं दे सकते हैं। परन्तु यीशु ने ऐसा किया। हम देखते हैं कि कैसे सुसमाचार इन घटनाओं को लिपिबद्ध करते हैं

यीशु प्रकृति से बात करता है

यीशु के पास अपने शब्द द्वारा शिक्षा देने और चंगा करने का अधिकार था। सुसमाचार लिपिबद्ध करता है कि उसने जिस तरह से सामर्थ्य का प्रदर्शन किया उससे उसके शिष्य ‘भय और विस्मय’ से भर गए थे।

22 फिर एक दिन वह और उसके चेले नाव पर चढ़े, और उस ने उन से कहा; कि आओ, झील के पार चलें: सो उन्होंने नाव खोल दी।
23 पर जब नाव चल रही थी, तो वह सो गया: और झील पर आन्धी आई, और नाव पानी से भरने लगी और वे जोखिम में थे।
24 तब उन्होंने पास आकर उसे जगाया, और कहा; हे स्वामी! स्वामी! हम नाश हुए जाते हैं: तब उस ने उठकर आन्धी को और पानी की लहरों को डांटा और वे थम गए, और चैन हो गया।
25 और उस ने उन से कहा; तुम्हारा विश्वास कहां था? पर वे डर गए, और अचम्भित होकर आपस में कहने लगे, यह कौन है जो आन्धी और पानी को भी आज्ञा देता है, और वे उस की मानते हैं॥

लूका 8:22-25

यीशु के शब्द ने हवा और लहरों को भी आज्ञा दी! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि शिष्य भय से भरे हुए थे। एक अन्य अवसर पर उसने हजारों लोगों को उसे जैसी ही सामर्थ्य को दिखाया। इस बार उसने हवा और लहर को नहीं – अपितु भोजन को आज्ञा दी।

न बातों के बाद यीशु गलील की झील अर्थात तिबिरियास की झील के पास गया।
2 और एक बड़ी भीड़ उसके पीछे हो ली क्योंकि जो आश्चर्य कर्म वह बीमारों पर दिखाता था वे उन को देखते थे।
3 तब यीशु पहाड़ पर चढ़कर अपने चेलों के साथ वहां बैठा।
4 और यहूदियों के फसह के पर्व निकट था।
5 तब यीशु ने अपनी आंखे उठाकर एक बड़ी भीड़ को अपने पास आते देखा, और फिलेप्पुस से कहा, कि हम इन के भोजन के लिये कहां से रोटी मोल लाएं?
6 परन्तु उस ने यह बात उसे परखने के लिये कही; क्योंकि वह आप जानता था कि मैं क्या करूंगा।
7 फिलेप्पुस ने उस को उत्तर दिया, कि दो सौ दीनार की रोटी उन के लिये पूरी भी न होंगी कि उन में से हर एक को थोड़ी थोड़ी मिल जाए।
8 उसके चेलों में से शमौन पतरस के भाई अन्द्रियास ने उस से कहा।
9 यहां एक लड़का है जिस के पास जव की पांच रोटी और दो मछिलयां हैं परन्तु इतने लोगों के लिये वे क्या हैं?
10 यीशु ने कहा, कि लोगों को बैठा दो। उस जगह बहुत घास थी: तब वे लोग जो गिनती में लगभग पांच हजार के थे, बैठ गए:
11 तब यीशु ने रोटियां लीं, और धन्यवाद करके बैठने वालों को बांट दी: और वैसे ही मछिलयों में से जितनी वे चाहते थे बांट दिया।
12 जब वे खाकर तृप्त हो गए तो उस ने अपने चेलों से कहा, कि बचे हुए टुकड़े बटोर लो, कि कुछ फेंका न जाए।
13 सो उन्होंने बटोरा, और जव की पांच रोटियों के टुकड़े जो खाने वालों से बच रहे थे उन की बारह टोकिरयां भरीं।
14 तब जो आश्चर्य कर्म उस ने कर दिखाया उसे वे लोग देखकर कहने लगे; कि वह भविष्यद्वक्ता जो जगत में आनेवाला था निश्चय यही है।
15 यीशु यह जानकर कि वे मुझे राजा बनाने के लिये आकर पकड़ना चाहते हैं, फिर पहाड़ पर अकेला चला गया।

यूहन्ना 6:1-15

जब लोगों ने देखा कि यीशु केवल धन्यवाद देकर भोजन को कई गुना बढ़ा सकता है, तो वे जानते थे कि वह अद्वितीय था। वह वागीशा (संस्कृत में भाषण का प्रभु) थे। परन्तु इसका क्या अर्थ है? यीशु ने बाद में अपने शब्दों की सामर्थ्य या प्राण को स्पष्ट करते हुए समझाया

63 आत्मा तो जीवनदायक है, शरीर से कुछ लाभ नहीं: जो बातें मैं ने तुम से कहीं हैं वे आत्मा है, और जीवन भी हैं।

यूहन्ना 6:63

तथा

57 जैसा जीवते पिता ने मुझे भेजा और मैं पिता के कारण जीवित हूं वैसा ही वह भी जो मुझे खाएगा मेरे कारण जीवित रहेगा।

यूहन्ना 6:57

यीशु दावा कर रहे थे कि वह शरीर में त्रि-भागी सृष्टिकर्ता (पिता, वचन, आत्मा) के रूप में देहधारी था जिसने ब्रह्मांड को अस्तित्व में आने के लिए अपना शब्द बोला था। वह मानव रूप में जीवित ओ३म् थे। वह जीवित शरीर में पवित्र त्रि-भागी प्रतीक थे। उसने पवन, तरंग और पदार्थ के ऊपर अपनी सामर्थ्य को बोलकर  प्राण या जीवन-शक्ति को प्रदर्शित किया था।

ऐसे कैसे हो सकता है? इसका क्या अर्थ है?

समझने वाले मन

यीशु के शिष्यों को इसे समझने में कठिन लगा। 5000 को भोजन खिलाए जाने के बाद सुसमाचार इस वृतान्त को ऐसे लिपिबद्ध करता है:

45 तब उस ने तुरन्त अपने चेलों को बरबस नाव पर चढाया, कि वे उस से पहिले उस पार बैतसैदा को चले जांए, जब तक कि वह लोगों को विदा करे।
46 और उन्हें विदा करके पहाड़ पर प्रार्थना करने को गया।
47 और जब सांझ हुई, तो नाव झील के बीच में थी, और वह अकेला भूमि पर था।
48 और जब उस ने देखा, कि वे खेते खेते घबरा गए हैं, क्योंकि हवा उनके विरूद्ध थी, तो रात के चौथे पहर के निकट वह झील पर चलते हुए उन के पास आया; और उन से आगे निकल जाना चाहता था।
49 परन्तु उन्होंने उसे झील पर चलते देखकर समझा, कि भूत है, और चिल्ला उठे, क्योंकि सब उसे देखकर घबरा गए थे।
50 पर उस ने तुरन्त उन से बातें कीं और कहा; ढाढ़स बान्धो: मैं हूं; डरो मत।
51 तब वह उन के पास नाव पर आया, और हवा थम गई: और वे बहुत ही आश्चर्य करने लगे।
52 क्योंकि वे उन रोटियों के विषय में ने समझे थे परन्तु उन के मन कठोर हो गए थे॥
53 और वे पार उतरकर गन्नेसरत में पहुंचे, और नाव घाट पर लगाई।
54 और जब वे नाव पर से उतरे, तो लोग तुरन्त उस को पहचान कर।
55 आसपास के सारे देश में दोड़े, और बीमारों को खाटों पर डालकर, जहां जहां समाचार पाया कि वह है, वहां वहां लिए फिरे।
56 और जहां कहीं वह गांवों, नगरों, या बस्तियों में जाता था, तो लोग बीमारों को बाजारों में रखकर उस से बिनती करते थे, कि वह उन्हें अपने वस्त्र के आंचल ही को छू लेने दे: और जितने उसे छूते थे, सब चंगे हो जाते थे॥

मरकुस 6:45-56

यह कहता है कि शिष्यों ने इसे ‘नहीं समझा। न समझने का कारण यह नहीं था कि वे बुद्धिमान नहीं थे; ऐसा नहीं था क्योंकि उन्होंने यह नहीं देखा कि क्या घटित हुआ था; इसलिए नहीं कि वे बुरे शिष्य थे; न ही ऐसा था क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे। यह कहता है कि उनके मन कठोर हो गए थे।हमारे अपने कठोर मन भी हमें आत्मिक सच्चाई को समझने से रोकते हैं।

यही वह मूल कारण है कि उसके दिन के लोग यीशु के बारे में इतने अधिक विभाजित थे। वैदिक परम्परा में हम ऐसे कहेंगे कि वह प्रणव या ओ३म्, अर्थात् अक्षरा होने का दावा कर रहा था जिसने संसार को अस्तित्व में आने के लिए कहा, और इसके बाद वह स्वयं मनुष्य – क्षरा बन गया।इसे बौद्धिक रूप से समझने के स्थान पर इसके प्रति हमारे मनों में छाए हुए हठ को दूर करने की जरूरत है।

यही कारण है कि यूहन्ना की तैयारी का कार्य महत्वपूर्ण था। उसने लोगों से अपने पाप को छिपाने के बजाय उसे स्वीकार करने के लिए पश्चाताप करने के लिए बुलाया। यदि यीशु के शिष्यों के मन कठोर थे जिन्हें पश्चाताप करने और पाप स्वीकार करने की आवश्यकता थी, तो आप और मैं कितने अधिक हो सकते हैं!

तो अब क्या करें?

मन को कोमल बनाने और समझ को प्राप्त करने वाला मंत्र

मैंने इब्रानी वेदों में मंत्र के रूप में दिए गए इस अंगीकार को सहायता के लिए प्रार्थना के रूप में पाया है। शायद ध्यान लगाने या जप करने के साथ-साथ ओ३म् आपके मन में भी काम करेगा।

परमेश्वर, अपनी करूणा के अनुसार मुझ पर अनुग्रह कर; अपनी बड़ी दया के अनुसार मेरे अपराधों को मिटा दे।
2 मुझे भलीं भांति धोकर मेरा अधर्म दूर कर, और मेरा पाप छुड़ाकर मुझे शुद्ध कर!
3 मैं तो अपने अपराधों को जानता हूं, और मेरा पाप निरन्तर मेरी दृष्टि में रहता है।
4 मैं ने केवल तेरे ही विरुद्ध पाप किया, और जो तेरी दृष्टि में बुरा है, वही किया है, ताकि तू बोलने में धर्मी और न्याय करने में निष्कलंक ठहरे।
5 देख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा॥
6 देख, तू हृदय की सच्चाई से प्रसन्न होता है; और मेरे मन ही में ज्ञान सिखाएगा।
7 जूफा से मुझे शुद्ध कर, तो मैं पवित्र हो जाऊंगा; मुझे धो, और मैं हिम से भी अधिक श्वेत बनूंगा।
8 मुझे हर्ष और आनन्द की बातें सुना, जिस से जो हडि्डयां तू ने तोड़ डाली हैं वह मगन हो जाएं।
9 अपना मुख मेरे पापों की ओर से फेर ले, और मेरे सारे अधर्म के कामों को मिटा डाल॥
10 हे परमेश्वर, मेरे अन्दर शुद्ध मन उत्पन्न कर, और मेरे भीतर स्थिर आत्मा नये सिरे से उत्पन्न कर।
11 मुझे अपने साम्हने से निकाल न दे, और अपने पवित्र आत्मा को मुझ से अलग न कर।
12 अपने किए हुए उद्धार का हर्ष मुझे फिर से दे, और उदार आत्मा देकर मुझे सम्भाल॥

भजन संहिता 51: 1-4, 10-12

हमें यह समझने के लिए इस पश्चाताप को करने की आवश्यकता है कि इसका क्या अर्थ होता है, कि यीशु जीवित वचन के रूप में परमेश्वर का ‘ओ३म्’ है।

वह क्यों आया था? हम इसे अगले लेख में देखते हैं।