मोक्ष – कर्मों से स्वतंत्रता को प्राप्त करना

कर्म, गुरत्वाकर्षण की तरह ही, एक ऐसी व्यवस्था है जो कि आपके और मेरे ऊपर कार्यरत् है। कर्म का अर्थ बहुत सी बातें हो सकती हैं, परन्तु इसका मौलिक विचार हमारे द्वारा किए हुए कामों से है और धार्मिक कार्यों के लाभ और बुरे कार्यों के लिए दण्ड हमारे प्राणों के साथ जुड़ा हुआ है। जब तक हमारे कार्य पूरी तरह से धार्मिक नहीं होते तब तक हम पर इनका दण्ड है, और जब तक यह दण्ड नहीं  दे दिया जाता हम बन्धन में पड़े हुए हैं।

हम सभी किसी न किसी तरीके से सहज बुद्धि से इनका अहसास करते हैं। और हमारी बुद्धि और ज्ञान के द्वारा हमने बहुत से ऐसे तरीकों को इन जमा किए हुए कर्मों से निपटारा करने के लिए आविष्कृत कर लिया है। एक मार्ग कर्म मार्ग है (कामों का एक मार्ग) जिसमें हम भले कामों के लिए बहुत ही कठिन मेहनत करते हैं। मंत्र और पूजा हैं जिनका उच्चारण किया जाता है। त्योहार और पवित्र स्नान जैसी बातें हैं जिनमें भाग लिया जाता है, जैसे कुम्भ मेला त्योहार। ये तरीके बहुत ही कठिन हैं और हमें कभी भी आश्वस्त नहीं किया गया है कि हमारे प्रयास पर्याप्त हैं। क्या हमारे कर्मों के पीछे की गई मंशा भली थी? क्या भले कर्मों की सँख्या की मात्रा पर्याप्त है? हम इसके लिए कभी भी सुनिश्चित नहीं हैं। और इसलिए, गुरत्वाकर्षण की तरह ही, हम कर्मों में बने रहते हुए, स्वयं को मोक्ष प्राप्त करने और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सक्षम नहीं हैं। इसलिए ही पूजा करने से पहले अधिकांश लोग प्ररथास्नाना (या प्रतासना) मंत्र (“मैं एक पापी हूँ। मैं पाप का परिणाम हूँ। मैं पाप में उत्पन्न हुआ। मेरा प्राण पाप के अधीन है। मैं सबसे बड़ा पापी हूँ। हे प्रभु जिसके पास सुन्दर आँखें हैं, मुझे बचा ले, बलिदान देने वाले हे प्रभु।”) का उच्चारण करते हैं।

प्रजापति/यहोवा: ऐसा परमेश्‍वर जो बलिदान में प्रबन्ध करता है 

इसलिए अब “बलिदान का यह प्रभु कौन है?” और यह कैसे हमें कर्मों की व्यवस्था से बचा सकता है? सबसे प्राचीन वेद  के लेखों में, परमेश्‍वर जो सारी सृष्टि का प्रभु था – जिसने इसे रचा और ब्रह्माण्ड को अपने नियंत्रण में रखता है – को प्रजापति कह कर पुकारा जाता था। यह प्रजापति ही है जिसके द्वारा बाकी का सब कुछ अस्तित्व में आया है।

ऋग्वेद के लिखे जाने के समय के आस पास ही, लगभग 1500 ईसा पूर्व पवित्रशास्त्र का एक और हिस्सा पृथ्वी की दूसरी छोर – जिसे अब मध्य पूर्व द्वीप कह कर पुकारा जाता है, पर लिखा जा रहा था। वेद पुस्तक (बाइबल) के ये आरम्भिक इब्रानी मूल प्रतियाँ को तोरह  के नाम से जाना जाता है। तोरह इस घोषणा के साथ आरम्भ होती है कि एक ही परमेश्‍वर है जो इस  पूरे ब्रह्माण्ड का सृष्टिकर्ता है। मूल इब्रानी भाषा के लिप्यान्तरण में इस परमेश्‍वर को या तो इलोहीम  या फिर यहोवा  कह कर पुकारा जाता था, और इन नामों को एक दूसरे के स्थान पर और इन इब्रानी मूल प्रतियों में सभी स्थानों पर उपयोग किया जाता था। इस प्रकार, ऋग्वेद के प्रजापति के जैसे ही, तोरह का यहोवा  या इलोहीम  पूरी सृष्टि का प्रभु था (और है)।

तोरह के आरम्भ में, यहोवा ने स्वयं को उस परमेश्‍वर में प्रगट किया है जो एक ऋषि जिसे अब्राहम कह कर पुकारा जाता है, के साथ हुई मुठभेड़ में उल्लेखनीय तरीके से ‘प्रबन्ध करने वाले’ के रूप में स्वयं को प्रगट करता है। हम बाद में इस मुठभेड़ पर और अधिक विस्तार से देखेंगे। अभी कुछ पलों के लिए, मैं चाहता हूँ कि आप यहोवा जो प्रबन्ध करता है (इब्रानी भाषा के यहोवा-यिरे का लिप्यान्तरण) और ऋग्वेद के प्रजापति जो कि “सृजे हुओं का समर्थक और सुरक्षा करने वाला”  है, के मध्य पाई जाने वाली समानताओं  के ऊपर ध्यान दें।

किस तरीके में यहोवा प्रबन्ध करता है? हमने पहले ही इस आवश्यकता की ओर ध्यान दे दिया है कि हमें कर्मों से छुटकारा प्राप्त करना है, और हमने उस मंत्र के ऊपर भी ध्यान दे दिया है जिसमें ‘बलिदान वाले प्रभु’ से प्रार्थना की गई है। ऋग्वेद निम्न बात कहते हुए उसी के ऊपर और अधिक विस्तार करता है:

वास्तविक बलिदान स्वयं प्रजापति ही है”

[संस्कृति: प्रजापतिर य़ाञा:]

शतपथ ब्राह्मण का भाषान्तरण करते हुए संस्कृत के विद्वान ऐच. अगुलीआर निम्न टिप्पणी देते है:

“और वास्तव में, इस बलिदान को पूरा करने के लिए और कोई भी (पीड़ित) नहीं था, परन्तु केवल प्रजापति ही था और देवताओं ने उसे बलिदान के लिए तैयार कर दिया। इस कारण इस संदर्भ के सम्बन्ध में ऋषि ने कहा है, ‘कि देवताओं ने बलिदान की सहायता से इस बलिदान को भेंट में चढ़ा दिया – क्योंकि बलिदान की सहायता के द्वारा उन्होंने उस को (प्रजापति) भेंट में चढ़ा दिया, बलिदान – ये सबसे पहले विधान थे, क्योंकि व्यवस्थाएँ सबसे पहले स्थापित की गई थीं।” ऐच. अगुलीआर, ऋग्वेद में बलिदान

प्राचीन समय से वेद घोषणा करते आ रहे हैं कि प्रजापति (या यहोवा) ने हमारी आवश्यकता की पहचान कर ली थी इसलिए उसने हमारे कर्मों के लिए स्वयं-को-बलिदान के लिए देने का प्रबन्ध किया। उसने ऐसा कैसे किया हम बाद के लेखों में देखेंगे जब हम ऋग्वेद के पुरूषासूक्ता में पुरूषा-प्रजापति के बलिदान के ऊपर ध्यान केन्द्रित करेंगे, परन्तु अभी के लिए केवल इतना ही सोचें कि यह कितना महत्वपूर्ण है। श्वेताश्वतरोपनिषद् 3/8 ऐसे कहता है:

‘अनन्त जीवन का अन्य कोई मार्ग नहीं है’ (संस्कृत में :णन्यह्पन्थ विद्यते – अयनय) श्वेताश्वतरोपनिषद् 3/8

यदि आप कर्मों से बचने की रूचि रखते हैं, यदि आप मोक्ष या आत्म जागृति की इच्छा रखते हैं तब इस बात की जानकारी होना बुद्धिमानी है कि क्यों और कैसे प्रजापति (या यहोवा) ने हमारे लिए यीशु में स्वयं-के-बलिदान के द्वारा प्रबन्ध करते हुए प्रगट किया है ताकि हम कर्मों से बच सकें और स्वर्ग को प्राप्त कर सकें। और वेद हमें मार्ग में नहीं छोड़ देते हैं। ऋग्वेद में पुरूषासूकता है जो प्रजापति के देहधारण और उसके द्वारा हमारे लिए बलिदान होने का विवरण देता है। यहाँ पर पुरूषासूक्ता के परिचय को देखने के लिए क्लिक करें जो पुरूषा का विवरण वैसे ही देता है जैसे बाइबल (वेद पुस्तक) यीशु सत्संग (नासरत के यीशु) का करती है और उसका बलिदान आप तक मोक्ष या मुक्ति (अमरत्व) को लेकर आता है। इसके पश्चात् हम इन वेदों के अध्ययन को जारी रखेंगे और देखेंगे कि कैसे प्राचीन ऋषि अय्यूब कर्मों से स्वयं की स्वतन्त्रता की घोषणा और शाश्‍वत जीवन – उसे मोक्ष प्रदान किया गया था, की अपेक्षा कर सका।